Sunday 31 July 2016

136 वर्ष बाद प्रेमचंद और उनकी रचनाएँ

आज जब हम यहाँ अपराजेय कथाशिल्पी मुंशी प्रेमचंद का १३६ वा वर्षगांठ मना रहे हैं !आज जब उनकी गोदान जैसी कालजयी कृति ८० वर्ष की हो चुकी तब उसका पुनर्पाठ आज भी अपने समाज से रूबरू होना लगता है !इन सबके बीच कई सवाल हमारी जेहन में आते हैं !
ऐसा क्या कारण है की आज भी गैर हिंदी लोगों के लिए हिंदी का मतलब -प्रेमचंद है ?
ऐसा क्या कारण है की प्रेमचंद आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने कल थे ?
इन सवालों के जवाब हमे बहुत आसानी से मिल जातें है जब हम अपने समाज को यूँ ही देख भर लेते हैं और हमे आज भी -घीसू,माधव,हल्कू,होरी जैसे चरित्र देखने को मिल जातें हैं ! प्रेमचंद ने घीसू के गस्त खाकर गिरती आँखों में जो यथार्थ देखा था ! दरअसल वो तो आज का यथार्थ भी है तब हमें प्रेमचंद और भी प्रासंगिक नजर आतें हैं !
अंग्रेजी के एक महान कवि किट्स कहतें हैं ­- a thing of beauty is joy forever.
यही सुन्दरता प्रेमचंद की रचनाओं में भी है और शायद इसीलिए वो कभी पुरानी नही होती हर समय आनंद देती है !
प्रेमचंद मानतें हैं एक लेखक को हमेसा प्रगतिशील होना चाहिए ,इनका सम्पूर्ण साहित्य चिंतन इसी प्रगतिशीलता ,समाज को बेहतर बनाने की बेचैनी व् सच्चाई की अनवरत खोज से उपजा है , जिसकी जड़ें गहरे जमीन से जुडी हुईं हैं
देखा जाये तो भारतीय साहित्य का बहुत सा विमर्श जो बाद में प्रमुखता से उभरा चाहे वो दलित साहित्य हो या नारी साहित्य उसकी जड़ें कहीं गहरे प्रेमचंद के साहित्य में दिखाई देतें हैं , प्रेमचंद के सारे के सारे पात्र वें हैं जो कुचले,पिसे और दुःख के बोझ सहते हुए हैं ,प्रेमचंद के साहित्य में ही पहली बार किसान मिलता है, भारतीय किसान ,जो खेत के मेड़ पर खड़ा हुआ है उसके हाथ में कुदाल है ,तपती दोपहरी या कड़कड़े जाड़े में वह मेहनत करता है और कर्ज उतारने की कोशिश करता है !
गोदान में एक जगह प्रेमचंद कहते हैं - इनका ( किसानों ) का देवत्व ही इनकी दुर्दशा का कारण है ,काश ये आदमी ज्यादा और देवता कम होते तो यूँ न ठुकराए जाते !
किसानी जीवन का इतना मार्मिक वर्णन और कहीं देखने को नही मिल सकता , इसीलिए आज तक गोदान का कोई पर्यायवाची नही हुआ ! इनकी हर एक कहानी एक सामाजिक यथार्थ होती है
ग़ुरबत या गरीबी की जो विडंबना ,उनका दुःख दर्द प्रेमचंद के वहां देखने को मिलता है वो और कहीं नही मिलता इसका सबसे अच्छा उदहारण उनकी रचना पूस की रात है और कफ़न कहानी की बात करें तो उसमे केवल एक कफ़न नही बल्कि दो कफ़न हैं एक तो वो जिसका घीसू माधव ने शराब पी लिया और दूसरा वो कफ़न है जिसे वो बच्चा ओढ़कर सो गया जो अपनी गरीब माँ की कोख में था इस पीड़ा को दिखाना प्रेमचंद के बूते की बात ही थी ! इसीलिए प्रेमचंद को पढ़ना , समाज से होकर गुजरना सा है वे हर समय हर काल में अपनी पूर्ण अर्थवत्ता के साथ प्रसांगिक रही हैं और हमेसा ही रहेंगी।

Thursday 21 May 2015

रोती हुई संवेदनाओं की आत्मकथा


हिन्दी दलित आत्मकथाओं में डॉ. तुलसीराम की 2010 में प्रकाशित पहला खण्ड "मुर्दहिया" एवम् दूसरा खण्ड 2013 में मणिकर्णिका दलित समाज की त्रासदी और भारतीय समाज की विडम्बना का सामाजिक,आर्थिक,और राजनितिक आख्यान है। यह कृति समाज,संस्कृति,इतिहास और राजनीति की उन परतो को उघाड़ती है जो अभी तक अनकहा और अनछुआ था। बौद्धिकों को भारतीय समाज के सच का आइना दिखाती है कि देखो ,21वीं सदी के भारत की तस्वीर कैसी है?? ये केवल एक आत्मकथा भर नही अपितु पुरे दलित साहित्य की पीड़ा यथार्थ रूप है उनकी भोगी हुई अनुभूति है । मुर्दहिया के बारे में लेखक का मानना है - " मुर्दहिया एक व्यक्ति की आत्मकथा नही हैं बल्कि हमारे गाँव में किसी की भी आत्मकथा लिखी जाती तो भी उसका नाम मुर्दहिया ही होता " मुर्दहिया का काफी हिस्सा लेखक के घर-परिवार का बदतर जीवन ,मुर्दहिया के आस पास का जनजीवन,अन्धविश्वास,एक दलित विद्यार्थी-जीवन के असहनीय संघर्षो,संवेदना व् चिंतन कइ फलक कअ अँधेरी गुफा है जिसे पारकरने कइ लिए कभी बुध्द में तो कभी किसी हितैषी में लेखक एक रौशनी की तलाश करता रहता है। वहीँ मणिकर्णिका जो कि बनारस का प्रसिद्ध शमसान घाट है और जिसके बारे में प्रचलित है की यहाँ मरने के बाद शव जलाने पर सीधे मोक्ष मिल जाती है,अन्धविश्वास व् अंधश्रद्धा का उत्तरोत्तर विस्तार ...मुर्दहिया एवम् मणिकर्णिका के बीच महासेतु है जिसपर मनुष्य सभ्यता का विडम्बनापूर्ण ईमारत खड़ा है। मुर्दहिया डॉ तुलसीराम की जन्मस्थली धरमपुर की बहुउद्देशीय कर्मस्थली है और 'सही मायनो में दलित बस्ती की जिंदगी भी ', वहीं मणिकर्णिका में लेखक की तपस्थली काशी का बिम्ब 3d इफेक्ट के साथ सफलतापूर्वक उतारती है। मणिकर्णिका में लेखक ने बीएचयू में सन् 1958 में हुए छात्र आंदोलन की चर्चा की है। समय-समय पर बीएचयू में होने वाले राजनीतिक ध्रुवीकरणों तथा विघटनकारी तत्वों की गतिविधियों से शैक्षणिक माहौल के दूषित होने का विस्तृत परिचय दिया है। चिन्तन-धारा में परिवर्तन का उल्लेख इस प्रकार हुआ है—‘नास्तिकता तथा कम्युनिज्म को मैंने मानव मस्तिष्क के चिंतन की सर्वोच्च पराकाष्ठा के रूप में अपनाया। —ईश्वर को चुनौती देना कोई मामूली बात नहीं थी। यह बड़ा मुश्किल काम है, जिसके लिए साहसी होना अत्यावश्यक है, क्योंकि ईश्वर हमेशा डरपोक दरवाजे से ही मस्तिष्क में घुसता है। वस्तुतः मुर्दहिया और मणिकर्णिका दोनों ही शमसान घाट है और मृत्यु का आवरण सदैव दोनों में मौजूद है। इससे यह आभास होता है की मानो दलित जीवन में जिन्दगी के साथ साथ मृत्यु भी सदैव विद्यमान रहती है। मणिकर्णिका पर आयोजित एक सेमिनार में डॉ नामवर सिंह कहते हैं- यह मृत्यु की छाया क्यों मंडरा रही है सब पर,यह मुझे जानकर आश्चर्य है और शायद जो जीवन को बहुत प्यार करता है उसी में मृत्यु बोध सबसे ज्यादा होता है। बहुत कम आत्मकथाएं होती है जिनमे अपने अलावा पुरे समाज का एक इतिहास उसी में निहित होता है। दरअसल,मुर्दहिया जहाँ डॉ तुलसीराम के अवचेतन में छिपे सुप्त विचार है वहीँ मणिकर्णिका उनका चेतनावस्था में फलीभूत उनके वैचारिक संघर्ष है।छात्र जीवन की मुश्किलें,द्वंद्व,सफलता,नाकामी,प्रेरणा,राजनीति,व् प्रेम सबकुछ एक चलचित्र की भाँति ,अपने समय से टकराते हुए,समाज के सुख-दुख को साझा करते हुए एक इस्पाती दस्तावेज है। ये लेखक के निजी जीवन की झांकी मात्र नही वरन समकालीन सामाजिक एवम् युगीन स्थितियो ,परिस्थितियों, का आइना है। ‘मणिकर्णिका’ का क्षेत्र अत्यधिक व्यापक है। इसमें देश के विभिन्न आन्दोलनों—नक्सलवाद, जेपी आंदोलन, दलित प्रसंग आदि की चर्चा है तो विश्वस्तर पर घटने वाले उपक्रमों का तथ्यात्मक उल्लेख है। इस प्रकार आत्मकथा में इतिहास भी अपना चेहरा खोले हुए है। पद्यात्मक उल्लेखों ने गद्य की नीरसता को सरसता प्रदान की है। कृति की भाषाशैली आकर्षक और बोधगम्य है।

Thursday 2 April 2015

खतरे में हिन्दी का अस्तित्व

प्रसाशनिक सेवा का एग्जाम पास करना है और हिम्मत तो देखिये वह भी हिन्दी मीडियम से ?दिमाग है या चला गया हिन्दी मीडियम से पढ़ोगे और सपने देखोगे उच्च अधिकारी बनने के, अरे कही क्लर्क स्टेनो ज्यादा से ज्यादा बड़े बाबू के पद के लिए फॉर्म भर सकते हो और इंतजार कर सकते हो की तुम्हारी बारी कब आती है ,कुछ याद भी है, हिंदुस्तान में प्रशासनिक सेवा किसकी देन है ?कुछ याद आया ?चलो मैं ही बता देता हूँ -अंग्रेजो की देन है भाई और तुम हिंदी मीडियम के लोग इसे दूषित करना चाहते हो अंग्रेजो की बेसकीमती विरासत को । राजा और प्रजा का अंतर भूल गये क्या?? शायद ही किसी देश में भाषा को लेकर इतना जबरजस्त वर्गीकरण होता हो जितना अपने भारत में है । अगर कोई बच्चा फर्राटेदार अंग्रेजी बोले तो बस बच्चा तुरंत भले घर का ,अच्छे परिवेश का,बुद्दिजीवी वर्ग का कुल मिलाकर लड़का रॉयल ब्लड वाला मान लिया जाता है लेकिन यदि किसी बच्चे के मुँह से हमारी राजभाषा कहे जाने वाली हिन्दी के स्वर फूटे तो हमारी नजर में बच्चा दीन हीन परिवेश एवम् काम चलाऊ शिक्षण संस्थान की ही तस्वीर बना पाता है। आज के इस आधुनिक युग में हिन्दी का अस्तित्व खतरे में है। आजकल हिन्दी के स्वरुप में काफी परिवर्तन आया है। मुझे भारतेंदु जी के इस कथन की भी याद आ रही, जिसमें आज से लगभग 150 वर्ष पूर्व उन्होंने घोषित किया था कि हिन्दी नई चाल में ढली जायेगी। अंग्रेज भारत में ध्वजा और धुरी के साथ आये थे। इन दोनों का प्रभाव हिन्दी के स्वरूप पर भी पड़ा था। ध्वजा के लिए उन्होंने प्रशासन तंत्र तैयार किया और धुरी अर्थात् तराजू के लिए भारत में अंग्रेजी माल का नया बाजार विकसित किया। इन दोनों के साथ हिन्दी क्षेत्र में ढेरों अंग्रेजी शब्द आये जो आज तक प्रचलित हैं।1947 में स्वतंत्रता के साथ ही हिन्दी पुन: नई चाल में ढली- लोकतंत्र, संविधान, विकास कार्य, शिक्षा का प्रचार-प्रसार, तकनीकी जैसे कारणों से हिन्दी व्यापक हुई, उसका शब्दकोश समृद्ध हुआ। नये-नये स्रोतों से आने वाले शब्द हिन्दी भाषी जनता की जुबान पर चढ़ गये। इन शब्दों में विदेशी शब्द थे, बोलियों के शब्द थे, गढ़े हुए शब्द थे। जनता अपनी बात कहने के लिए जिन शब्दों का प्रयोग करती है, उनकी कुंडली नहीं पूछती। बस काम चलना चाहिए। वह तो भाषा के पंडित हैं, और हिंदी को आगे न ले जाने वाले लोग है जो शब्दों का कुलगोत्र आदि जानना चाहते हैं। जनता भाषा की संप्रेषणीयता को महत्वपूर्ण मानती है, जबकि पंडित लोग भाषा की शुद्धता को महत्व देते हैं। हिन्दी के स्वाभिमान का हल्ला मचाने वालों को आड़े हाथों लेते हुए निराला जी ने एक बड़े पते की बात कही थी- हम हिन्दी के जितने दीवाने हैं, उतने जानकार नहीं। हिन्दी के शुद्धतावादी पंडितों ने कुकुरमुत्ता नामक कविता मे प्रयुक्त नवाब, गुलाब, हरामी, खानदानी जैसे शब्दों पर एतराज जताया था। कहा था, इन शब्दों से हमारी हिन्दी भ्रष्ट होती है। इन शुद्धतावादी विचारकों का कहना है कि हिन्दी के साहित्यकारों को विदेशी शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। अब सामंत, पाटल, वर्गशंकर, कुलीन कहने से हिन्दी के स्वाभिमान की रक्षा भले ही हो जाये, किन्तु व्यंग्य की धार मौंथरी होती है और संप्रेषणीयता भी बाधित होती है। हिन्दी के ये शुद्धतावादी पोषक शहीद भगतसिंह को बलिदानी भगतसिंह कहना चाहते हैं। उनका बस चले तो वे भगतसिंह को भक्तसिंह बना दें। वे फीसदी को गलत मानते हैं, उन्हें प्रतिशत ही मान्य है। वे राशन कार्ड, कचहरी, कार, ड्राइवर, फिल्म, मेटिनी, कंप्यूटर, बैंक, टिकट जैसे शब्दों के भी विरोधी हैं। वही हिन्दी का स्वाभिमान। यह झूठा स्वाभिमान हिन्दी के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। ऐसे लोग हिन्दी को आगे नहीं बढऩे देना चाहते। वे वस्तुत: जीवन की प्रगति के ही विरोधी हैं। इसके साथ साथ सत्ता व्य्वस्था का भी बराबर का योगदान है क्योंकि वो इस वैश्वीकरण के युग में हिन्दी को आगे ले जाना ही नही चाहती और इसका साफ साफ लक्षण हमे शैक्षिक पाठ्यक्रमो में दिखता है जहाँ वर्षो से हिन्दी का वही स्वरूप् वहाँ मौजूद है उसमें कोई सुधार करने की आवशयकता नही समझी गयी।साथ ही साथ प्राइवेट एवम् सरकारी दोनों क्षेत्र में हिन्दी वालों को वरियता नही मिलती ऐसे में मेरे जहन में एक प्रश्न बार बार आता है कि अगर हिन्दी को वरीयता भारत में नही मिलेगी तो क्या इंग्लैंड या अमेरिका में मिलेगी? इसीलिए अब हिंदी का स्थान हिन्दी एवम् अंग्रेजी का मिला जुला स्वरुप हिंगलिश ले रहा है। इसका एक सबसे बड़ा कारण ये है की अब लोग उस जटिल एवम् क्लिष्ट हिन्दी को स्वीकार नही कर पा रहे । हिन्दी की जटिलता के कारण ही हिन्दी साहित्य के पाठको की संख्या भी निरंतर घटती ही जा रही है शायद भाषा का सम्प्रेषण ही नही हो पा रहा। ऐसे में हिन्दी, कुछ ऐसे वरिष्ठ एवं दिग्गज लोगो और एक उसी तरह के कुछ खास पाठक वर्ग के लिए रह गयी है जो हिन्दी साहित्य में रूचि रखते है। ऐसे में हिन्दी के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती ये भी है की वो अपने अस्तित्व को कैसे बचाये और साहित्यकारो की पीढ़ी को आगे कैसे बढ़ाये ?? अंग्रेजी में हर दस साल बाद शब्द कोशों के नये संस्करण प्रकाशित करने की परंपरा है।समाजशास्त्रियों, मीडिया विशेषज्ञों, पत्रकारों, मनोवैज्ञानिकों का एक दल निरंतर अंग्रेजी में प्रयुक्त होने वाले नये शब्दों की खबर लेता रहता है। यही कारण है कि पंडित, आत्मा, कच्चा, झुग्गी, समोसा, दोसा, योग जैसे शब्द अंग्रेजी के शब्द कोशों की शोभा बढ़ा रहे हैं। अंग्रेजी में कोई शुद्ध अंग्रेजी की बात नहीं करता। संप्रेषणीय अंग्रेजी की, अच्छी अंग्रेजी की बात करता है। अंग्रेजी भाषा की विश्व व्यापी ग्राह्यता का यही कारण है कि वह निरंतर नये शब्दों का स्वागत करने में संकोच नहीं करती। हाल ही में आक्सफोड एडवांस्ड लर्न्स डिक्शनरी का नया संस्करण जारी हुआ है। इसमें विश्व की विभिन्न भाषाओं के करीब तीन हजार शब्द शामिल किये गये हैं। बंदोबस्त, बनिया, जंगली, गोदाम जैसे ठेठ भारतीय भाषाओं के शब्द हैं, पर वे अंग्रेजी के शब्दकोश में हैं क्योंकि अंग्रेजी भाषी उनका प्रयोग करते हैं। इन नये शब्दों में एक बड़ा रोचक शब्द है चाऊ या चाव जिसका अर्थ दिया गया है- चोर, बदमाश, अविवाहित मां। इस चाव शब्द का एक रूप चाहें भी है। सूरदास ने चाव शब्द के चबाऊ रूपान्तर का प्रयोग अपनी कविता में किया है- सूरदास बलभद्र चबाऊ जनमत ही को धूत। हिन्दी का चाव या चाईं शब्द सात समंदर पार तो संग्रहणीय माना जाता है, पर अपने घर के शब्द कोशों में नहीं। हिन्दी क्षेत्र में इतने विश्वविद्यालय हैं, हिन्दी का प्रचार-प्रसार करने वाली इतनी संस्थाएँ हैं, क्या कोई ऐसी योजना नहीं बन सकती कि हिन्दी में प्रयुक्त होने वाले नये शब्दों को रिकार्ड किया जा सके और हिन्दी के शब्दकोश को विस्तृत किया जाये।और शासन व्यवस्था को हिन्दी के लिए गंभीर चिंतन की आवश्यकता है क्योंकि इसके बिना तो हिन्दी की नाव नदी पार होने से रही मेरे मित्र।

Tuesday 31 March 2015

गाँव का एक अल्हड़ लड़का

जिंदगी यूँ आसान न थी मैं एक मिडिल क्लास बैकग्राउंड से आना वाला लड़का था।संयुक्त परिवार में चाचा-चाची उनके 2 लड़के और मम्मी-पापा और हम 2 भाई थे जिसमे मैं छोटा था बचपन तो कुछ याद नही पर कुछ धुंधला सा बिम्ब उभर कर सामने आता है ।भैया शुरू से ही पढ़ने में काफी अच्छे थे मै पढ़ाई में हमेसा से ही औसत दर्जे का रहा हूँ । मेरी छवि एक गाँव के अल्हड़ लड़के सी थी पढ़ाई को छोड़कर बाकि सारी चीजो में अव्वल रहता था ।घुमक्कडी स्वभाव के कारण अक्सर पिताजी से पिटाई हो जाती थी ।खैर दिन अच्छे कट रहे थे पूरी तरह से अनुशासन के जाल में जकड़े जैसे-तैसे 8वीं अपने प्रिय स्कूल श्री चन्द्र जी महाराज लघु मा0 वि0 से पास किया । अब हमारा प्रवेश इंटरमीडिएट कॉलेज में हुआ यहाँ आते ही ऐसा लगा मानो आज़ादी का सर्टिफिकेट मिल गया हो ।हमारी दिनचर्या सुबह उठकर कालेज जाना फिर क्लास बंक करके क्रिकेट खेलना । दिन यूँ ही गुजरता गया कब बोर्ड एग्जाम आता कब बीत गया पता ही न चला पर अभी तो परिणाम आना बाकि था दोस्त ।रिजल्ट वाले दिन पूजा अगबरबत्ती का दौर चला किसी तरह ग्रेस माक्स के साथ पास हो गए । उस दिन काफ़ी सहयोग मिला पिताजी का वर्ना हम तो आसुंओं को तकिये के नीचे छुपाने की नाकाम कोसिस कर रहे थे ।उस दिन बड़ा पछतावा हो रहा  था याद आ रहा था की पुरे साल मैंने क्या क्या किया खैर 2 -4 दिनों के बहस के बाद ये तय हुआ की मेरा ना तो गणित में अच्छा नंबर था न ही रूचि तो हमे कला वर्ग से ही 12वी करना चाहिए ।कहते है न दूध का जला छाछ भी फूक-फूक के पीता है मैं अब  कैसे भी करके पढ़ाई करना चाहता था आगे बढ़ना चाहता था पर हमारे यहाँ कला वर्ग के बच्चों का भविष्य कुछ नही होता था ।कला वर्ग चुनने का मतलब लोग आपको दीन-हीन भावना से ही देखते थे । मैंने भी यही मान लिया था पर पिताजी और भैया ने आगे पढ़ने के लिए प्रेरित किया और मेरा कुछ अच्छे विश्वविद्यालयों जैसे bhu ,allahabad university,ddu से प्रवेश परीक्षा के लिए आवेदन डलवा दिया उन्ही दिनी 12वी की बोर्ड की परीक्षा भी दिया और परिणाम अपेक्षा से ज्यादा अच्छा आया हमने अपना कॉलेज टॉप किया था । कुछ दिनों बाद ही प्रवेश परीक्षा भी होने लगे मैंने सभी परीक्षाओ को दिया और सभी जगहों पर प्रवेश परीक्षा पास भी कर ली अब मैंने प्रवेश लिया इलाहाबाद विश्वविद्यालय में यहाँ आकर देखा तो लगा एक नए ही दुनिया में आ गया हूँ । जगह-जगह लड़के आपस में चर्चा कर रहे है,जगह-जगह सेमिनार, इतनी बड़े-बड़े भवन,इतने सारे लोग एक साथ पढ़ रहे है, ये सब बड़ा ही नया और रोमांचक अनुभव था मेरे लिए।कुछ दिनों तक तो रास्ता भी भूल जाता था की कौन सा डिपार्टमेंट कहाँ पर है ।वैसे भी कहाँ देखा था मैंने पहले इतना बड़ा विद्या का मंदिर हमारे यहाँ तो इतने बड़े डिग्री कॉलेज होते जितने बड़े यहाँ के डिपार्टमेंट । धीरे-धीरे गांव का ये अल्हड़ लड़का बोलना ,लिखना,पढ़ना,दोस्ती करना,सीख गया। और 1,2,3 वर्ष में इलाहाबादी बकैत भी बन गया । पर बकैती का ये अड्डा कुछ ज्यादा दिन मयस्सर न हुआ परास्नातक की पढाई के लिए मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला मिल चुका था और दरअसल तब मुझे अहसास हुआ  परिंदों का कोई घर नही होता वो तो होतें है हमेसा से ही यायावर एक खुले आसमान में उड़ने वाले पंक्षी की तरह .......





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