Tuesday 31 March 2015

गाँव का एक अल्हड़ लड़का

जिंदगी यूँ आसान न थी मैं एक मिडिल क्लास बैकग्राउंड से आना वाला लड़का था।संयुक्त परिवार में चाचा-चाची उनके 2 लड़के और मम्मी-पापा और हम 2 भाई थे जिसमे मैं छोटा था बचपन तो कुछ याद नही पर कुछ धुंधला सा बिम्ब उभर कर सामने आता है ।भैया शुरू से ही पढ़ने में काफी अच्छे थे मै पढ़ाई में हमेसा से ही औसत दर्जे का रहा हूँ । मेरी छवि एक गाँव के अल्हड़ लड़के सी थी पढ़ाई को छोड़कर बाकि सारी चीजो में अव्वल रहता था ।घुमक्कडी स्वभाव के कारण अक्सर पिताजी से पिटाई हो जाती थी ।खैर दिन अच्छे कट रहे थे पूरी तरह से अनुशासन के जाल में जकड़े जैसे-तैसे 8वीं अपने प्रिय स्कूल श्री चन्द्र जी महाराज लघु मा0 वि0 से पास किया । अब हमारा प्रवेश इंटरमीडिएट कॉलेज में हुआ यहाँ आते ही ऐसा लगा मानो आज़ादी का सर्टिफिकेट मिल गया हो ।हमारी दिनचर्या सुबह उठकर कालेज जाना फिर क्लास बंक करके क्रिकेट खेलना । दिन यूँ ही गुजरता गया कब बोर्ड एग्जाम आता कब बीत गया पता ही न चला पर अभी तो परिणाम आना बाकि था दोस्त ।रिजल्ट वाले दिन पूजा अगबरबत्ती का दौर चला किसी तरह ग्रेस माक्स के साथ पास हो गए । उस दिन काफ़ी सहयोग मिला पिताजी का वर्ना हम तो आसुंओं को तकिये के नीचे छुपाने की नाकाम कोसिस कर रहे थे ।उस दिन बड़ा पछतावा हो रहा  था याद आ रहा था की पुरे साल मैंने क्या क्या किया खैर 2 -4 दिनों के बहस के बाद ये तय हुआ की मेरा ना तो गणित में अच्छा नंबर था न ही रूचि तो हमे कला वर्ग से ही 12वी करना चाहिए ।कहते है न दूध का जला छाछ भी फूक-फूक के पीता है मैं अब  कैसे भी करके पढ़ाई करना चाहता था आगे बढ़ना चाहता था पर हमारे यहाँ कला वर्ग के बच्चों का भविष्य कुछ नही होता था ।कला वर्ग चुनने का मतलब लोग आपको दीन-हीन भावना से ही देखते थे । मैंने भी यही मान लिया था पर पिताजी और भैया ने आगे पढ़ने के लिए प्रेरित किया और मेरा कुछ अच्छे विश्वविद्यालयों जैसे bhu ,allahabad university,ddu से प्रवेश परीक्षा के लिए आवेदन डलवा दिया उन्ही दिनी 12वी की बोर्ड की परीक्षा भी दिया और परिणाम अपेक्षा से ज्यादा अच्छा आया हमने अपना कॉलेज टॉप किया था । कुछ दिनों बाद ही प्रवेश परीक्षा भी होने लगे मैंने सभी परीक्षाओ को दिया और सभी जगहों पर प्रवेश परीक्षा पास भी कर ली अब मैंने प्रवेश लिया इलाहाबाद विश्वविद्यालय में यहाँ आकर देखा तो लगा एक नए ही दुनिया में आ गया हूँ । जगह-जगह लड़के आपस में चर्चा कर रहे है,जगह-जगह सेमिनार, इतनी बड़े-बड़े भवन,इतने सारे लोग एक साथ पढ़ रहे है, ये सब बड़ा ही नया और रोमांचक अनुभव था मेरे लिए।कुछ दिनों तक तो रास्ता भी भूल जाता था की कौन सा डिपार्टमेंट कहाँ पर है ।वैसे भी कहाँ देखा था मैंने पहले इतना बड़ा विद्या का मंदिर हमारे यहाँ तो इतने बड़े डिग्री कॉलेज होते जितने बड़े यहाँ के डिपार्टमेंट । धीरे-धीरे गांव का ये अल्हड़ लड़का बोलना ,लिखना,पढ़ना,दोस्ती करना,सीख गया। और 1,2,3 वर्ष में इलाहाबादी बकैत भी बन गया । पर बकैती का ये अड्डा कुछ ज्यादा दिन मयस्सर न हुआ परास्नातक की पढाई के लिए मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला मिल चुका था और दरअसल तब मुझे अहसास हुआ  परिंदों का कोई घर नही होता वो तो होतें है हमेसा से ही यायावर एक खुले आसमान में उड़ने वाले पंक्षी की तरह .......





अगला भाग जल्द ही - अल्हड लड़का भाग -2